भारत के इतिहास में नर्मदा बचाओ आंदोलन एक महत्वपूर्ण सामाजिक आंदोलन रहा है, जिसने देश के विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाने की दिशा में कई प्रश्न उठाए। यह आंदोलन न केवल लोगों के विस्थापन और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ा गया, बल्कि यह भी प्रदर्शित किया कि आर्थिक विकास के नाम पर पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किस हद तक विनाशकारी हो सकता है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत 1980 के दशक में हुई थी, जब नर्मदा नदी पर बड़े बांधों के निर्माण की योजनाएँ सामने आईं। यह परियोजनाएँ नर्मदा नदी के पानी का उपयोग सिंचाई, बिजली उत्पादन और पानी की आपूर्ति के लिए करने के उद्देश्य से बनाई गई थीं। इन बांधों में सबसे महत्वपूर्ण सरदार सरोवर बांध था, जिसका निर्माण गुजरात में किया गया था।हालांकि, इन बांधों के निर्माण से लाखों लोग, विशेषकर आदिवासी और ग्रामीण समुदाय, अपने घरों और आजीविका से वंचित होने वाले थे। नर्मदा नदी घाटी में रहने वाले ये लोग सदियों से इस क्षेत्र में रह रहे थे और उनकी संस्कृति और जीवनशैली नदी के साथ गहरे जुड़े हुए थे। बांधों के निर्माण से उनके गांव, खेत और जंगल डूबने की संभावना थी, जिससे उन्हें अपने पारंपरिक जीवन और आजीविका से बेदखल होना पड़ता।
मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन का नेतृत्व
नर्मदा बचाओ आंदोलन का नेतृत्व मेधा पाटकर के द्वारा किया गया, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् हैं। उन्होंने इस आंदोलन को एक जनांदोलन का रूप दिया, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोग शामिल हुए। मेधा पाटकर ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया और इसे एक व्यापक आंदोलन में बदल दिया।उनका तर्क था कि इन बांधों का लाभ केवल कुछ क्षेत्रों और लोगों को मिलेगा, जबकि लाखों लोग विस्थापित हो जाएंगे और उनकी जीवनशैली नष्ट हो जाएगी। इसके अलावा, उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि सरकार ने परियोजनाओं के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का समुचित मूल्यांकन नहीं किया था।
आंदोलन के उद्देश्य
नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य उद्देश्य नर्मदा नदी पर बनने वाले बड़े बांधों के निर्माण को रोकना था। इसके साथ ही, आंदोलन ने निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया: https://globalexplorer.in/save-narmada-movement-the-story-of-a-social-struggle/
- पुनर्वास और पुनर्स्थापना: आंदोलनकारियों का कहना था कि जिन लोगों को बांधों के निर्माण से विस्थापित किया जा रहा है, उनका उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापना किया जाना चाहिए। सरकार को उनकी ज़मीन, घर और आजीविका का उचित मुआवजा देना चाहिए।
- पर्यावरणीय प्रभाव: आंदोलनकारियों ने जोर दिया कि बांधों के निर्माण से नर्मदा नदी की पारिस्थितिकी और जैव विविधता पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। नदियों की प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करने से मछली, वन्यजीव और पेड़-पौधे नष्ट हो सकते हैं।
- न्यायिक हस्तक्षेप: आंदोलन ने न्यायपालिका के समक्ष भी अपनी बात रखी और सर्वोच्च न्यायालय से अपील की कि वह इन बांधों के निर्माण को रोकने के लिए हस्तक्षेप करे।
आंदोलन का प्रभाव
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भारत में विकास और पर्यावरण के मुद्दों पर गंभीर बहस शुरू की। यह आंदोलन एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जिसने न केवल देश में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित किया।1990 के दशक में आंदोलन के दबाव के कारण कई बार बांधों के निर्माण को रोका गया, और सरकार को विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए कई योजनाएं बनानी पड़ीं। हालांकि, 2000 में, सर्वोच्च न्यायालय ने बांधों के निर्माण को मंजूरी दी, लेकिन इसके साथ ही उसने यह भी सुनिश्चित किया कि विस्थापित लोगों का उचित पुनर्वास किया जाए।
आंदोलन की आलोचना और चुनौतियाँ
हालांकि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कई सकारात्मक परिणाम दिए, इसे आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। कई लोगों का मानना था कि आंदोलन ने देश के विकास को अवरुद्ध किया और इससे बिजली उत्पादन और सिंचाई की योजनाएं बाधित हुईं। कुछ का यह भी कहना था कि आंदोलन ने अपनी मांगों में कठोरता दिखाई और सरकार के साथ बातचीत के रास्ते बंद किए।
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन आवश्यक है। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने सरकार को यह सोचने पर मजबूर किया कि विकास की योजनाओं में सबसे कमजोर और हाशिए पर खड़े समुदायों की आवाज को भी सुना जाए। आज भी नर्मदा बचाओ आंदोलन एक मिसाल के रूप में देखा जाता है, जो समाज में न्याय और पर्यावरण की रक्षा के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है।