गांधी जी और भगत सिंह स्वतंत्रता के लिए दो विचार धाराएँ
महात्मा गांधी और भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रमुख और प्रतिष्ठित नेता थे। दोनों ही देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराने के लिए समर्पित थे, लेकिन उनके विचार और मार्ग स्वतंत्रता के प्रति काफी भिन्न थे। गांधी जी का अहिंसावादी दृष्टिकोण और भगत सिंह का क्रांतिकारी विचारधारा इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। इस आर्टिकल में, हम उनके बीच के विचार संबंधों और उन विचारों के कारण उत्पन्न तनाव का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।
गांधी जी का दृष्टिकोण
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को अपनाया। उनके लिए स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश हुकूमत से छुटकारा पाने की बात नहीं थी, बल्कि एक नैतिक और आध्यात्मिक संघर्ष भी थी। गांधी जी का मानना था कि हिंसा किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकती। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नैतिकता और धर्म के उच्च आदर्शों के साथ जोड़कर देखा।
गांधी जी ने अपने आंदोलनों जैसे “असहयोग आंदोलन” और “नमक सत्याग्रह” में अहिंसा को मुख्य हथियार बनाया। उन्होंने यह विश्वास किया कि यदि भारतीय जनता शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीकों से ब्रिटिश शासन का विरोध करेगी, तो ब्रिटिश सरकार अंततः भारत छोड़ने के लिए विवश होगी। उनके विचारों का उद्देश्य न केवल स्वतंत्रता प्राप्त करना था, बल्कि एक नैतिक और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना भी करना था।
भगत सिंह का दृष्टिकोण
भगत सिंह का दृष्टिकोण गांधी जी से बिल्कुल विपरीत था। वह क्रांतिकारी आंदोलन के प्रतीक थे और उनका मानना था कि स्वतंत्रता केवल संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। भगत सिंह को बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित किया गया था, खासकर जलियांवाला बाग हत्याकांड और लाला लाजपत राय पर हुए हमले के बाद।
भगत सिंह के लिए ब्रिटिश शासन केवल दमन का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह आर्थिक और सामाजिक अन्याय का भी प्रतिनिधित्व करता था। उन्होंने महसूस किया कि स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह समाज के शोषित और गरीब वर्गों के लिए भी होनी चाहिए। उनका दृष्टिकोण एक समाजवादी और समानतावादी दृष्टिकोण की ओर था, जहां हर नागरिक को समान अवसर और अधिकार मिले।
भगत सिंह का मानना था कि ब्रिटिश शासन को केवल अहिंसा से उखाड़ पाना संभव नहीं है। इसलिए, उन्होंने सशस्त्र क्रांति को अपनी रणनीति के रूप में चुना। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव आदि क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण घटनाओं को अंजाम दिया, जिनमें 1928 में लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या और 1929 में सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की घटना शामिल है।
विचारधारात्मक अंतर
गांधी जी और भगत सिंह दोनों स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख चेहरे थे, लेकिन उनकी विचारधाराएं अलग-अलग थीं। गांधी जी का मानना था कि स्वतंत्रता एक शांतिपूर्ण और नैतिक संघर्ष के माध्यम से हासिल की जानी चाहिए। उन्होंने हिंसा को नकारते हुए कहा कि “हिंसा हिंसा को जन्म देती है”। उनके अनुसार, हिंसा से प्राप्त की गई स्वतंत्रता स्थायी नहीं हो सकती, और वह भारतीय समाज को नैतिक आधार पर स्थापित करना चाहते थे।
इसके विपरीत, भगत सिंह ने महसूस किया कि ब्रिटिश साम्राज्य का उन्मूलन केवल क्रांतिकारी कार्रवाई से ही संभव है। उनका मानना था कि क्रांति न केवल राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण है, बल्कि यह एक सामाजिक और आर्थिक क्रांति भी होनी चाहिए, जो श्रमिकों और किसानों के हित में हो।
भगत सिंह के लिए हिंसा एक साधन था, जबकि गांधी जी के लिए अहिंसा एक सिद्धांत था। भगत सिंह के विचार से, यदि ब्रिटिश शासन को हिंसक तरीकों से समाप्त किया जाता है, तो इससे भारतीय जनता में क्रांति की भावना और जोश पैदा होगा। उनके अनुसार, भारत को आज़ादी दिलाने के लिए एक बड़ी क्रांति की आवश्यकता थी, जिसमें न केवल शासन का परिवर्तन हो, बल्कि सामाजिक ढांचे का भी पुनर्गठन हो।
गांधी जी और भगत सिंह के बीच संबंध
हालांकि गांधी जी और भगत सिंह के बीच विचारों में स्पष्ट अंतर था, लेकिन उनके बीच आपसी सम्मान भी था। गांधी जी भगत सिंह की क्रांतिकारी ऊर्जा और समर्पण की प्रशंसा करते थे, लेकिन वे उनके तरीकों से असहमत थे। गांधी जी ने भगत सिंह के विचारों और उनकी हिंसक रणनीति का विरोध किया, लेकिन उन्होंने कभी व्यक्तिगत रूप से भगत सिंह का तिरस्कार नहीं किया।
वहीं, भगत सिंह गांधी जी के प्रति सम्मान रखते थे, लेकिन उनके अहिंसावादी दृष्टिकोण से असहमत थे। भगत सिंह ने कई बार गांधी जी के विचारों की आलोचना की, खासकर असहयोग आंदोलन के दौरान जब गांधी जी ने चौरी-चौरा कांड के बाद आंदोलन को अचानक वापस ले लिया था। भगत सिंह ने इसे एक अवसर खोने के रूप में देखा और महसूस किया कि हिंसा और क्रांति ही स्वतंत्रता के लिए एकमात्र रास्ता हो सकता है।
भगत सिंह का मुकदमा और गांधी जी की भूमिका
भगत सिंह और उनके साथियों पर सॉन्डर्स की हत्या और असेंबली बम विस्फोट के आरोप में मुकदमा चलाया गया। भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को 1931 में फांसी की सजा सुनाई गई। उस समय, गांधी जी पर अक्सर आरोप लगाया जाता था कि उन्होंने भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। हालांकि, गांधी जी ने भगत सिंह की सजा को कम करने की अपील की थी, लेकिन यह सफल नहीं हो सकी।
भगत सिंह की फांसी के समय देश में एक बड़ा जनाक्रोश था, और कई लोगों ने गांधी जी को इसके लिए दोषी ठहराया। कुछ क्रांतिकारियों ने यह भी कहा कि यदि गांधी जी ने दृढ़ता से हस्तक्षेप किया होता, तो भगत सिंह की फांसी रोकी जा सकती थी। हालांकि, गांधी जी ने हमेशा कहा कि उन्होंने अपनी तरफ से जितना संभव हो सका, उतना किया।
महात्मा गांधी और भगत सिंह दोनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक थे, लेकिन उनके विचार और मार्ग एक-दूसरे से काफी भिन्न थे। गांधी जी ने अहिंसा को अपनाया और भारत को नैतिकता और आत्म-निर्भरता के रास्ते पर चलने का संदेश दिया, जबकि भगत सिंह ने क्रांति और सशस्त्र संघर्ष को स्वतंत्रता के लिए आवश्यक माना।हालांकि, उनके बीच के विचार संबंधों में विरोधाभास था, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही था: भारत को स्वतंत्रता दिलाना। गांधी जी और भगत सिंह के बीच के इस विचारधारात्मक संघर्ष ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को और भी मजबूत और विविध बनाया। उनका योगदान आज भी भारतीय समाज में प्रेरणा का स्रोत है, और उनके विचारों का अध्ययन और मूल्यांकन आज भी प्रासंगिक है।