नवपाषाण युग जो मध्यपाषाण युग के बाद की और पाषाण युग की अंतिम अवस्था है। इसमे खाद्य-उत्पादन की शुरुआत हुई। मानव जाति के प्रागैतिहास मे बुनियादी जीवन-शैली मे परिवर्तन लाने वाले घटनाक्रम की शुरुआत पर विद्वानों में लंबी बहस चली कि आखिर वह कौन-सा तत्व था जिसने विश्व के एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न भागों में रहने वाले मानव समाजों को कृषि और पशुपालन की ओर मोड़ा। यद्यपि तीनों मत के संबंधों में तर्कसंगत कल्पनाएं की गई हैं, अब यह सामान्य रूप से स्वीकृत है कि यह रूपांतरण तीनों – होलोसीन के प्रारंभ में जलवायु परिवर्तन, आबादी का बढ़ता घनत्व और मानव समूहों की विकसित होती हुई संस्कृति एवं प्रौद्योगिक रणनीति के सम्मिश्रण का परिणाम था।
मेहरगढ़
उपमहादेश में गेहूं,जौ,ढोर,भेड़ और बकरियाँ पर आधारित कृषीय जीवन के आरंभिक साक्ष्य बलूचिस्थान के बोलन नदी के तट पर मेहरगढ़ के स्थल से प्राप्त हुए हैं। इसका सुविधाजनक काल-क्रम है। लगभग 700 वर्ष ईशा पूर्व। अगली दो से तीन सहस्रताब्दी तक इस प्रकार की कृषि बलूचिस्थान तक सीमित प्रतीक होती है, हालांकि इस अवधि के अंत तक यह इसके बड़े भूभाग तक फैल जाती है।
नवपाषाण युग पर किसी भी विवेचना के लिए मेहरगढ़ की चर्चा अनिवार्य हो जाती है। इसका कारण केवल यही नहीं है कि इसने इस घटना विशेष के आद्यतम साक्ष्य प्रदान किए हैं, बल्कि यह भी है कि खुदईयों के अंतर-विषयक वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा परिणामों के नियमित प्रकाशन ने हमें वहाँ की नवपाषाणकालीन जीवन पद्धति की बहुत ही साफ तसवीर प्रदान की है।
अवधि-1
इसके अंर्गत व्यवसायका आद्यतम स्तर है। यायावरी पशुचारित से कृषि की ओर संक्रमण का काल है। यह अवधि मृतिका-शिल्प कालीन थी, बल्कि इसमें पत्थर के औजार जैसे पॉलिशदार कुठार, छेनी, हाथ, की चक्की और लघुपाषाण तथा हड्डियों के औजार जैसे सुतरी, सुई इत्यादि काम में लाए जाते थे। नव पाषाण के लक्षण मवेसीयों, भेड़ों और बकरियों की हड्डियों से भी परिलक्षित होते हैं। निश्चित ही ये पालतू रहे होंगे। यही बात भैसों जो उपमहाद्वीपीय में आद्यतम पशुपालन के उदाहरण है,जोकि हड्डियों से भी सिद्ध होती है। पौधा-रोपण का साक्ष्य गेहूँ और जौ तथा भारतीय बेरों और खजूरों के झुलसे हुए बीजों से मिलते हैं। स्थानबद्धता की शुरुआत का पता कच्ची ईटों से बने मकानों और छोटी कोठरियों के खंडों, जिनका उपयोग अन्न-भंडारण के लिए किया गया होगा कि नीवों से चलता है। लेकिन संभवतः सबसे आश्चर्यजनक सूचना लंबी दूरी वाले व्यापार और दस्तकारी के कामों से मिलती है। संभवतः ईरान के निशापूर की खानों से प्राप्त फिरोजा के मनके, अरब सागर के तट से सीप के कडे और अफगानिस्तान के बड़कशान क्षेत्र से लाजवर्द जैसे भारी माल के व्यापार के चिन्न पाए गए हैं। इससे साफ जाहीर होता है कि अवधि प्रथम में मेहरगढ़ के लोग अलग-थलग समुदायों के न होकर अन्य समकालीन संस्कृतियों के साथ आदान-प्रदान करते रहते थे।
इस स्थल पर खुदयाइयाँ जे. एफ. जरीग के नेतृत्व में 1974 में शुरु की गयी और 1980 के दशक तथा उसके बाद भी चलती रही। इन खुदाइयों ने इस क्षेत्र के ग्राम्य जीवन के विकास और मजबूतीकरण में अबाधित निरंतरता का तत्व उजागर किया है। लगभग 200 हेक्टेयर क्षेत्र पर फैला यह भव्यलस्थल विभिन्न अवधियों का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इन अवधियों का नामकरण विभिन्न संख्याओं द्वारा किया गया है- जैसे, एम आर-1,एम आर-2, एम आर -3 इत्यादि। कुल मिलाकर सात अवधियाँ हैं जिनमें पहले तीन 1,2 और 3 ही नवपाषाणकालीन माने जाते हैं। इनमें से प्रत्येक की समय सीमा इस प्रकार है : अवधि-1, ईसा पूर्व 7000-5500 वर्ष अवधि-2 , ईसापूर्व 5500-4500 वर्ष ,और अवधि-3, ईसा पूर्व 4500-350 वर्ष।
अवधि-2
इसकी मुख्य विशेषता आर्थिक आधार का तीव्रीकरण और वैविध्यकरण है। निम्नतर स्तरों पर कुछ हाथ से बने मिट्टी के पात्र पाए गए हैं जो इस अवधि में आगे चलकर भारी मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। अवधि कि समाप्ति के आस-पास चाक से बने ऐसे चक्कल (sherds) पाए गए हैं जिनपर चित्रकारी, चक्र और डलिया के चिन्न है और जिनकी तुलना क्वेटा घाटी में कीलीगुलमुहम्मद -1 से की जा सकती है। इस समय तक घर बड़े आकार के बनने लगे थे और इस स्थल पर एक संरचना को ‘अन्न भंडार’ की संज्ञा दे दी गई। पत्थर उद्योग जारी रहा और उसमे ‘हँसिया’ जैसे औजार जुड़ गए जिससे कृषि आधारित अर्थ-व्यवस्था की पुष्टि होती है। कपास उत्पादन और संभवतः कताई और बुनाई सूचित करने वाले कपास के झुलसे हुए बीज, हाथी के दांत का निर्माण, पक्की मिट्टी से बनी लघु मूर्तियाँ, सिलखड़ी का कारखाना और फिरोजा तथा लाजवर्द के मनके- ये सभी विकास के शिल्पकारी, व्यापार और सह-नवपाषाण युग को प्रमाणित करते है।
अवधि-3
इस अवधि का विस्तार लगभग 4500-3500 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। नव पाषाण दौर का अंतिम चरण है। कृषि और पशुपालन संबंधी क्रियाओं के सुदृढीकरण के द्वारा अतिरिक्त उत्पादन होने लगा। भारी मात्रा में मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं जिनमे अधिकांश पर चित्रित भाव है और जो इस अवधि के उत्तर काल में कीलीगुलमुहम्मद 2 और 3 से मिलते-जुलते हैं। फिरोजा और लाजवर्द के मानकों और शंखसीपी के टुकड़ों से लंबी दूरी के व्यापारिक पद्धति में पता चलता है। कुठालियों में पाए गए धातु के चिन्न और धरातल पर प्राप्त तांबे के पदार्थ से संकेत मिलता है कि नवपाषाण युग में मेहरगढ़ के लोग तांबा गलन जानते थे। इस अवधि के बड़ी संख्या में पाए जाने वाले सामूहिक कब्रों से ग्राम्य जीवन के सतत विकास की तस्वीर उभरती है और आबादी में बढ़ोतरी का संकेत मिलता है।
नवपाषाण काल में कई स्थानों का विकास हुआ था। जिसमें से इस लेख में हमने मेहरगढ़ में हुए विकास की चर्चा की है। जिसे हमने तीन अवधियों में वर्गीकृत करके उनके विषय में बताया है। इन अवधियों में बताया गया है की किस प्रकार लोगों के जीवनशैली में किस प्रकार बदलाव और खेती में बहुत तेज़ी से विकास हुआ था। इतना ही नहीं लोगों ने तरहएचतरह के औजार भी बनाना आरंभ कर दिया था। ऐसे ही जानकारियों के लिए हमारे साथ जुड़े रहिए।