भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक अध्याय ‘असहयोग आंदोलन’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में यह आंदोलन 1920 में शुरू हुआ और 1922 में समाप्त हुआ। इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय जनता को संगठित करना और ब्रिटिश शासन की नीतियों के साथ असहयोग करना था। इस आंदोलन ने देशभर में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष और विरोध को संगठित किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।
असहयोग आंदोलन
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद भारत में आर्थिक स्थिति बदतर हो गई थी। युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों पर भारी कर लगाए और उनके संसाधनों का उपयोग किया। युद्ध के बाद, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और खाद्यान्न की कमी ने जनता में असंतोष फैलाया। इसी दौरान, ब्रिटिश सरकार ने 1919 में रौलेट एक्ट पारित किया, जिसने बिना मुकदमे के गिरफ्तारी की अनुमति दी। इस कानून के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण जलियांवाला बाग हत्याकांड था। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जनरल डायर द्वारा निर्दोष भारतीयों पर गोली चलाने की घटना ने देशभर में आक्रोश पैदा किया और स्वतंत्रता संग्राम की भावना को और मजबूत किया।
असहयोग आंदोलन की शुरुआत
महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों पर आधारित असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने भारतीयों से अपील की कि वे ब्रिटिश शासन के साथ किसी भी प्रकार का सहयोग न करें। आंदोलन के मुख्य उद्देश्य थे:
- ब्रिटिश संस्थाओं का बहिष्कार: गांधीजी ने भारतीयों से ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार करने, सरकारी पदों से इस्तीफा देने, और ब्रिटिश स्कूलों, कॉलेजों और अदालतों से दूर रहने का आग्रह किया। उन्होंने स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों का उपयोग करने पर जोर दिया, जिससे ब्रिटिश व्यापार को नुकसान पहुंचे।
- खादी और स्वदेशी: गांधीजी ने खादी को भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक बताया और लोगों से खादी पहनने और विदेशी वस्त्रों को त्यागने का अनुरोध किया। देशभर में विदेशी वस्त्रों को जलाने का आयोजन किया गया।
- सार्वजनिक सभाओं और रैलियों: आंदोलन के दौरान देशभर में सार्वजनिक सभाओं और रैलियों का आयोजन किया गया, जहां गांधीजी और अन्य नेताओं ने भारतीय जनता को जागरूक किया और स्वतंत्रता की भावना को मजबूत किया।
आंदोलन का प्रभाव
असहयोग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन में किसान, श्रमिक, छात्र, व्यापारी और महिलाएं सभी ने सक्रिय रूप से भाग लिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस आंदोलन का समर्थन किया और इसे अपनी आधिकारिक नीति के रूप में अपनाया। आंदोलन के दौरान देशभर में ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार हुआ, सरकारी पदों से इस्तीफे दिए गए और ब्रिटिश अदालतों और संस्थानों का बहिष्कार किया गया। इससे ब्रिटिश सरकार पर काफी दबाव पड़ा और उन्होंने भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करने का प्रस्ताव रखा।
आंदोलन का अंत और परिणाम
5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा में एक हिंसक घटना हुई। आंदोलनकारियों ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला कर आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इस हिंसक घटना से गांधीजी बहुत दुखी हुए और उन्होंने आंदोलन को तत्काल समाप्त करने का निर्णय लिया। गांधीजी का मानना था कि अहिंसक आंदोलन में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इस घटना के बाद, गांधीजी और कई अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीजी को छह साल की सजा सुनाई गई, हालांकि उन्होंने जेल में रहते हुए भी भारतीय जनता को अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग पर चलने का संदेश दिया।
असहयोग आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। इसने भारतीय जनता में आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की भावना को बढ़ावा दिया। आंदोलन ने यह सिद्ध किया कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से भी प्रभावी विरोध किया जा सकता है। हालांकि आंदोलन अपने उद्देश्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन इसने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को स्पष्ट किया और भारतीय जनता को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। असहयोग आंदोलन के बाद, भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई और अधिक तीव्र हो गई और इसके परिणामस्वरूप भारत को 1947 में स्वतंत्रता मिली।