एक जमाना था भारत के घरों में चरखा रखना फख्र की बात समझी जाती थी लेकिन फिर दिन बदल गए। एक बार कि बात है, जब ब्रिटेन के पीएम जानसन अहमदाबाद में साबरमती आश्रम गए थे तब वहां उन्होंने चरखा से सूत काता था। जिसके एक अर्से बाद गांधीजी के चरखे को इस बहाने चर्चित होने का अवसर मिल गया। वैसे इस चरखे के इतिहास को लेकर इतिहासकारों के मध्य काफी मतभेद की स्थिति भी है।
चरखा हमारे गांधी जी को बेहद ही प्रिय था। गांधी जी खान कहीं भी होते रोज सूत जरूर कातते थे और सम्पूर्ण देशवासियों को स्वालंबन और स्वदेशी की शिक्षा देते थे। जब ब्रिटन के प्रधानमंत्री दो दिन के दौरे पर भारत आए थे तब वह सबसे पहले अहमदाबाद के साबरमती आश्रम गए थे और वहां जाकर उन्होंने गांधी जी के चरखे को भी चलाया। हमारे गांधी जी यह चाहते थे कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज के मध्य सफेद पट्टी पर चरखे का निशान ही रखा जाए परंतु ऐसा न होने पर वह बेहद ही निराश हो गाए थे।
आजादी की लड़ाई के दौरान चरखा घर – घर की शान बढ़ाता था। लोग उस दौरान अपना खुद का कपड़ा चरखे से ही कातते थे, वही चरखा वर्तमान में केवल गांधी संग्रहालयों तक सिमट कर ही रह गया है। बोरिस जानसन ने जब गांधी आश्रम में चरखे से सूत काता था तो इसे मीडिया में काफी प्रमुखता से कवर किया। हमारे गांधीजी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की लड़ाई में इसे बड़ा प्रतीक बनाकर जागरूकता की भी एक लड़ाई लड़ी थी। चरखा एक तरह से हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग की तरह बसा हुआ है आजादी के समय के इतिहास में विशेष दर्जा प्राप्त किए हुए है।
वैसे तो हमारे इतिहासकारों के मध्य इस बात को लेकर हमेशा मतभेद बना रहता है कि चरखा स्वदेशी है अर्थात हमारे कल्चर में उत्तपन्न हुआ है या फिर विदेश की संस्कृति से भारत आया। कुछ इतिहासकार इसे विशुद्ध तौर पर भारत की देन बताते हैं तो कुछ चीन की। कुछ इतिहासकार ये भी कहते हैं कि ये इस्लामिक वर्ल्ड से भारत लाया गया है आइए जानते हैं कि इतिहासकारों के चरखे को लेकर क्या- क्या मत हैं?
जाने माने इतिहासकार जेएम केनोयेर ने सिंधू घाटी सभ्यता पर बड़ा काम किया है। जिनका मानना है कि सिंधू घाटी से पहले से लोग चरखे का इस्तेमाल को जानते थे। उनका कहना यह भी है कि सिंधू घाटी के लोग चरखे का इस्तेमाल करना सीख चुके थे। वहीं दूसरे इतिहासकार मुख्तार अहमद मानते हैं कि चरखे से कपड़ा बनाने का काम इतिहास से पहले के दौर का यानि अत्यंत प्राचीन है। मतलब दोनों ही इतिहासकारों का मानना है कि सिंधू घाटी सभ्यता में लोग चरखे से सूत कातने का काम करने लगे थे। चरखे को ईसा से 300 साल पूर्व से भारत में प्रचलित बताया जाता है।
क्या चरखा चीन की देन है?
कुछ इतिहासकार इसे चीन की देन बताते हैं। डायटर कोन और वेजी चेंग का इतिहास कहता है कि चरखा मूल तौर पर चीन की झोऊ वंश की देन है। क्योंकि वहां चरखे का इस्तेमाल ईसा से 100 वर्ष पूर्व से होता था। यहां तक कि चीन की डिक्शनरी में दूसरी सदी में इसके इस्तेमाल का जिक्र मिलता है। साथ ही यह भी कहा गया कि 1090 में चीन में बड़े पैमाने पर चरखे का इस्तेमाल वहां के लोगों द्वारा किया जाने लगा था और 1270 में चाइनीज पेंटिंग में इसे दिखाया गया है।
क्या चरखा मुस्लिम वर्ल्ड की देन?
कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे मुस्लिम वर्ल्ड की देने भी माना जाता है सी वेन स्मिथ और जे टाम कोथ्रेन का मानना है कि भारत में चरखे का आविष्कार 500-100 वर्ष ईसा उपरांत हुआ था। आर्नोल्ड पेसी और इरफान हबीब इससे अलग थ्योरी रखते हैं। उनका मानना है कि चरखे का आविष्कार इस्लामिक वर्ल्ड में 11वीं सदी में हुआ था। क्योंकि 1030 में इसके इस्लामिक वर्ल्ड में इस्तेमाल के साक्ष्य मिलते हैं। 1237 या इससे पहले बगदाद में कई ऐसी पेंटिंग्स बनीं, जिसमें चरखे का इस्तेमाल हो रहा था।
इन इतिहासकारों का ये भी कहना है कि कपास की सुताई भारत में होती थी, ये भ्रामक है, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता। भारत में इसका पहला प्रमाण 1350 में तब मिला जबकि इस्लामिक यात्री अब्दुल मलिक भारत आया और उसने अपनी किताब फुतुह उस सलातिन में इसका जिक्र किया था। जिसने लिखा कि महिलाएं चरखे का इस्तेमाल करना जानती थीं।
वहीं केए नीलाकांत शास्त्री और विजय रामास्वामी ने लिखते हैं कि, इस बात के भरपूर प्रमाण और उल्लेख हैं कि 12वीं सदी में भारत में राममावी नाम के कन्नड़ कवि चरखे का इस्तेमाल करते थे।
क्या चरखा 13वीं सदी में पहुंचा यूरोप?
ऐसा माना जाता है कि यूरोप में 13वीं सदी में चरखा लेकर जाने वाले इस्लामिक वर्ल्ड के लोग थे और तब की यूरोपीय चित्रकला में ये नजर भी आता है। हालांकि फ्रांस में इसका उल्लेख 18वीं सदी में किया जाता है।वैसे चरखे को शायद पूरी दुनिया में असली पहचान गांधीजी ने ही दी थी।पूरी दुनिया में उनकी चरखे पर सूत कातते हुए तस्वीरें प्रकाशित और प्रचलित हुईं थीं।
क्या है चरखा भारत डिस्कवरी?
एनसाइक्लोपीडिया पोर्टल कहता है, चरखा एक हस्तचालित यंत्र है जिससे सूत तैयार किया जाता है। अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले भारत में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित हो चुका था। सन् 1702 में अकेले इंग्लैंड ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी ख़रीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएं भी लिखीं थीं।
गांधीजी के दिमाग में कब आया चरखासन्
1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी, जब वह इंग्लैंड में थे। उसके बाद वह बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वह चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन् 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई, जिसके बाद बड़ी कोशिश के बाद उन्हें दो साल बाद 1918 में खड़ा चरखा मिला।
इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के अलग भागों में अलग आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। गांधीजी की कोशिश से कांग्रेस ने चरखे में अपने कार्यक्रमों में शामिल किया। पटना में 22 सितंबर, 1925 को ‘अखिल भारत चरखा संघ’ की स्थापना की गई थी।
चरखे की नई डिजाइन के लिए गांधीजी ने इनाम भी रखा था। चरखे में संशोधन हो, इसके लिये गांधी जी बहुत बेचैन थे। सन् 1923 में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं बन पाया। 29 जुलाई सन् 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपया पुरस्कार देने की घोषणा की गई थी। कोशिश तो कई लोगों ने की लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिल पाई। तब एक चरखा बनाने वाले एक किर्लोस्कर बंधु भी थे।
चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बांस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। बाद में अंबर चरखा बना, जिसे अभी तक के चरखों में सबसे बेहतर माना जाता है।