Friday, November 22, 2024
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जंगल बचाओ आंदोलन 1980 का एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संघर्ष

1980 के दशक में भारत के विभिन्न हिस्सों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई और सरकारी नीतियों के विरोध में कई आंदोलन हुए, जिनमें से “जंगल बचाओ आंदोलन” एक प्रमुख और महत्वपूर्ण आंदोलन रहा है। यह आंदोलन खासतौर पर आदिवासी और ग्रामीण समुदायों द्वारा शुरू किया गया था, जिन्होंने अपने परंपरागत अधिकारों और संसाधनों की रक्षा के लिए आवाज उठाई थी। इस आंदोलन ने न केवल पर्यावरण संरक्षण के महत्व को रेखांकित किया, बल्कि आदिवासी समुदायों के अधिकारों और उनकी आजीविका के संरक्षण पर भी ध्यान केंद्रित किया।

आंदोलन का कारण

1970 और 1980 के दशक में भारत में आर्थिक विकास की दिशा में कई योजनाएं और नीतियां बनाई गईं, जिनका मुख्य उद्देश्य औद्योगिकीकरण और आर्थिक प्रगति था। इस दौरान सरकार ने बड़े पैमाने पर वन क्षेत्र को काटने और उसे अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति दी। इन नीतियों का मुख्य उद्देश्य वन संसाधनों का व्यापारिक दोहन करना था।हालांकि, इन नीतियों के कारण जंगलों पर निर्भर आदिवासी और ग्रामीण समुदायों की आजीविका पर गहरा असर पड़ा। इन समुदायों की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से जंगलों पर आधारित थी, जहां से वे अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए लकड़ी, फल, औषधीय पौधे और अन्य आवश्यक वस्त्र प्राप्त करते थे। जब जंगल कटने लगे, तो इन लोगों के जीवन पर सीधा असर पड़ा। उनके पारंपरिक अधिकारों का हनन हुआ और उनके जीवन में अस्थिरता आ गई। इसी असंतोष ने जंगल बचाओ आंदोलन को जन्म दिया।

आंदोलन की शुरुआत

जंगल बचाओ आंदोलन की शुरुआत 1980 के दशक में बिहार (अब झारखंड) और उड़ीसा जैसे राज्यों से हुई। यह आंदोलन मुख्यतः आदिवासी और ग्रामीण समुदायों द्वारा शुरू किया गया था, जिन्होंने अपने परंपरागत अधिकारों और जंगलों की रक्षा के लिए संगठित होकर विरोध प्रदर्शन किए।बिहार के सिंहभूम जिले में यह आंदोलन विशेष रूप से जोरदार था। यहां के मुंडा, हो और उरांव आदिवासी समुदायों ने जंगलों की कटाई के खिलाफ व्यापक आंदोलन शुरू किया। उन्होंने सरकारी नीतियों का विरोध किया और जंगलों को बचाने के लिए कई उपाय अपनाए, जिनमें वृक्षारोपण, जंगलों की सुरक्षा के लिए गश्त करना और जंगल काटने वाली मशीनों को रोकना शामिल था। उड़ीसा में भी इसी प्रकार के आंदोलन देखने को मिले, जहां आदिवासी समुदायों ने अपने पारंपरिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया।

आंदोलन के प्रमुख मुद्दे

जंगल बचाओ आंदोलन के प्रमुख मुद्दे थे:

  • पर्यावरण संरक्षण: आंदोलनकारियों का मुख्य उद्देश्य जंगलों की कटाई को रोकना और पर्यावरण को बचाना था। जंगलों की कटाई से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को लेकर वे बेहद चिंतित थे।
  • आदिवासी अधिकार: इस आंदोलन का दूसरा प्रमुख मुद्दा आदिवासी समुदायों के परंपरागत अधिकारों की रक्षा करना था। ये समुदाय जंगलों पर सदियों से निर्भर थे और उन्हें अपने जीवन और आजीविका के लिए जंगलों की आवश्यकता थी।
  • संसाधनों का संरक्षण: जंगलों के संरक्षण के साथ-साथ इनका सही तरीके से प्रबंधन और उपयोग भी महत्वपूर्ण था। आंदोलनकारियों का मानना था कि स्थानीय समुदायों को इन संसाधनों के प्रबंधन और संरक्षण में शामिल किया जाना चाहिए।
  • सरकारी नीतियों का विरोध: आंदोलनकारी सरकारी नीतियों का विरोध कर रहे थे, जिनमें बड़े पैमाने पर वन क्षेत्रों को उद्योगों के लिए उपयोग किया जा रहा था। उन्होंने इन नीतियों को वन्यजीव और पर्यावरण के लिए हानिकारक माना।

आंदोलन का प्रभाव

जंगल बचाओ आंदोलन का प्रभाव धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया। इसने विभिन्न राज्यों में चल रहे पर्यावरणीय संघर्षों को प्रेरित किया और एक व्यापक जन आंदोलन का रूप ले लिया। सरकार ने भी इस आंदोलन की गंभीरता को समझा और वन संरक्षण के मुद्दों पर पुनर्विचार करना शुरू किया।1988 में भारतीय वन नीति में बदलाव किए गए, जिसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया और उन्हें वन संरक्षण में शामिल किया गया। इस नीति ने जंगलों के संरक्षण के साथ-साथ समुदायों के अधिकारों और उनकी आजीविका को भी महत्व दिया।

जंगल बचाओ आंदोलन ने न केवल पर्यावरणीय संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया, बल्कि यह भी दिखाया कि कैसे संगठित और सामूहिक संघर्ष से बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं। इस आंदोलन ने आने वाले वर्षों में भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए कई और आंदोलनों को प्रेरित किया और देश के विकास के मॉडल को अधिक सतत और समावेशी बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए।

जंगल बचाओ आंदोलन ने भारतीय समाज में पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के महत्व को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। इस आंदोलन ने न केवल जंगलों को बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि देश के विकास के मॉडल में पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक न्याय को महत्व दिया जाए। 1980 के दशक का यह आंदोलन आज भी उन संघर्षों का प्रतीक है, जहां सामान्य लोगों ने अपनी आवाज उठाई और पर्यावरण और समाज के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव की नींव रखी।

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