ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण और कुख्यात पहलू थी। यह नीति उन सभी उपनिवेशों में लागू की गई थी जहां ब्रिटिश साम्राज्य का शासन था, विशेषकर अफ्रीका और एशिया के देशों में। रंगभेद की नीति का उद्देश्य नस्लीय श्रेष्ठता और अधिकारिक असमानता को बनाए रखना था, जिसके द्वारा श्वेत ब्रिटिश नागरिकों को अधीनस्थ जातियों और रंग के लोगों पर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नियंत्रण रखने का अधिकार दिया गया था। इस लेख में हम इस नीति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, इसके प्रभाव, विरोध और इसके अंत के विषय में चर्चा करेंगे।
रंगभेद की पृष्ठभूमि
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार के साथ ही, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में औपनिवेशिक शासन की स्थापना हुई। अफ्रीका, एशिया और कैरिबियन में उपनिवेशों की स्थापना के बाद, वहां की स्थानीय आबादी पर राजनीतिक और आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक प्रकार की नस्लीय श्रेष्ठता की भावना का विकास किया। इसमें प्रमुख रूप से श्वेत नस्ल को श्रेष्ठ और बाकी नस्लों को निम्न माना जाता था। इस नस्लीय भेदभाव की जड़ें न केवल ब्रिटिश समाज में थीं, बल्कि यह औद्योगिक क्रांति और उपनिवेशवाद के युग में भी पनपीं, जब यूरोपीय देश अपने लाभ के लिए दूसरे देशों के संसाधनों और मानव शक्ति का दोहन कर रहे थे।
रंगभेद नीति के विभिन्न आयाम
रंगभेद की नीति ब्रिटिश उपनिवेशों में कई रूपों में लागू की गई थी। यह केवल सामाजिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि कानूनों, आर्थिक नीतियों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के स्तर पर भी मौजूद थी।
1. कानूनी असमानता
ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन क्षेत्रों में नस्लीय असमानता कानूनी रूप से स्थापित की गई थी। उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में ‘आपार्थेड’ (Apartheid) की नीति ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक प्रमुख उदाहरण थी, जिसमें श्वेत और अश्वेत आबादी के बीच विवाह, शिक्षा, नौकरी और अन्य सामाजिक संबंधों पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे। इसी तरह, भारत में भी कई कानून ब्रिटिश और भारतीयों के बीच अंतर करते थे। भारतीयों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति के अवसर सीमित थे, और उन्हें समाज के उच्च वर्गों में प्रवेश करने से रोका जाता था।
2. आर्थिक शोषण
रंगभेद नीति का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक शोषण था। ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों की प्राकृतिक और मानव संसाधनों का दोहन किया गया। उदाहरण के लिए, भारत से कच्चा माल ब्रिटेन भेजा जाता था और फिर भारत को तैयार माल उच्च कीमत पर बेचा जाता था। भारतीय मजदूरों और किसानों को उनके परिश्रम के लिए बहुत कम मजदूरी दी जाती थी, जबकि ब्रिटिश व्यापारियों और अधिकारियों ने भारी मुनाफा कमाया। अफ्रीका में भी श्रमिकों को कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया गया और उनकी जमीनों को ब्रिटिश कंपनियों ने जब्त कर लिया।
3. शैक्षणिक और सांस्कृतिक भेदभाव
ब्रिटिश उपनिवेशों में शिक्षा का उद्देश्य भी नस्लीय श्रेष्ठता को बढ़ावा देना था। उपनिवेशों में स्थापित स्कूलों में अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को सर्वोच्चता दी जाती थी, जबकि स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों को निम्न समझा जाता था। यह शिक्षा प्रणाली लोगों के मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालने के लिए बनाई गई थी ताकि वे अपने आपको हीन समझें और ब्रिटिश संस्कृति को श्रेष्ठ मानें।
रंगभेद के विरोध में संघर्ष
रंगभेद नीति के खिलाफ विरोध कई देशों में हुआ। अफ्रीका, भारत, और कैरिबियन क्षेत्रों में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य नस्लीय भेदभाव और ब्रिटिश शासन का अंत था। महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने भारत में ब्रिटिश नस्लीय भेदभाव के खिलाफ शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने रंगभेद को न केवल राजनीतिक शोषण का प्रतीक माना, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूप से भी इसे अनुचित बताया। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ होने वाले रंगभेद के खिलाफ भी संघर्ष किया।
1. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष
दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश शासन के अधीन अश्वेत लोगों और भारतीयों को कठोर भेदभाव का सामना करना पड़ा। महात्मा गांधी ने यहां अपने सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी। उन्होंने रंगभेद कानूनों के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध का मार्ग चुना, जिसने बाद में भारत में उनके स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष को भी प्रभावित किया। इसके बाद, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं ने भी रंगभेद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी और अंततः आपार्थेड व्यवस्था का अंत हुआ।
2. भारत में संघर्ष
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान कई बार नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा। रेलवे, होटलों, क्लबों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी या फिर उन्हें दोयम दर्जे की सुविधाओं का उपयोग करना पड़ता था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह रंगभेद नीति भी एक प्रमुख मुद्दा बन गई। गांधी, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने इस भेदभाव का विरोध किया और इसके खिलाफ जन जागरूकता अभियान चलाया।
रंगभेद नीति का अंत
रंगभेद नीति का अंत वैश्विक स्तर पर संघर्ष, जन आंदोलन और राजनीतिक दबाव के परिणामस्वरूप हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, दुनिया भर में नस्लीय समानता और मानवाधिकारों की मांग तेज हो गई। औपनिवेशिक शासनों का विरोध बढ़ने लगा, और संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ कड़े कदम उठाए।भारत में, महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह और नागरिक अधिकारों के संघर्ष ने ब्रिटिश सरकार की रंगभेद नीति के खिलाफ एक प्रमुख भूमिका निभाई। भारत की स्वतंत्रता के साथ 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हुआ और रंगभेद नीति भी समाप्त हो गई।
दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के संघर्ष और अंतर्राष्ट्रीय बहिष्कार ने रंगभेद को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभाई, जो 1994 में औपचारिक रूप से समाप्त हुआ। इस तरह, रंगभेद नीतियों का अंत वैश्विक जनचेतना और संघर्षों के माध्यम से हुआ।
निष्कर्ष
भारत में ब्रिटिश सरकार की रंगभेद नीति स्पष्ट रूप से नस्लीय श्रेष्ठता और सामाजिक असमानता पर आधारित थी। ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों को नीचा समझते थे और सार्वजनिक स्थानों, जैसे क्लब, रेलवे, और होटलों में भारतीयों के लिए अलग-अलग और निम्न स्तर की सुविधाएं निर्धारित थीं। यह नीति भारतीयों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से श्वेत ब्रिटिशों से कमतर दिखाने का प्रयास करती थी। हालांकि, भारत में यह नीति दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में लागू रंगभेद जितनी कठोर नहीं थी, फिर भी इसने औपनिवेशिक शासन के तहत गहरे भेदभाव और अपमान का निर्माण किया। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने इस नस्लीय अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया, जिससे भारतीय समाज में जागरूकता फैली और स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला। अंततः, ब्रिटिश शासन के साथ यह रंगभेद नीति भी भारत से समाप्त हुई।